16 दिसंबर की तारीख़ दिल्ली में अब एक रस्म बन चुकी है. औरतों के सवाल पर काम करने वाले संगठन, कलमकार और विशेषज्ञ ज्यादा एक्टिव हो जाते हैं. कमोबेश सभी मीडिया हाउसेज़ भी स्त्री सुरक्षा से जुड़े ज़्यादातर पहलुओं पर स्टोरी करते हैं. उम्मीद है कि पांच-दस साल बाद यह तारीख़ किसी भव्य उत्सव में बदल जाएगी. मोमबत्तियां और मेले लगना तय हैं. फूल चढ़ाने के लिए गैंगरेप पीड़िता के नाम पर कहीं एक मज़ार भी बन जाए तो अजूबा नहीं होगा.
देश और देश की राजधानी को मेला-मज़ार सजाकर अपनी गंदगी छिपाना भी क्या खूब पता है. स्त्री आज़ादी और अस्मिता के सवाल पर जहां फ्लैगमार्च होता है, मेला छंटने के बाद वहां भी खरीददारों की भीड़ बेझिझक आ पहुंचती है. मेरी यह शिक़ायतें मनगढ़ंत या झूठी नहीं हैं, वरना मेरे ही शहर में कम से कम मेरी बोली नहीं लगती.
सिर्फ एक घंटे के लिए दिल्ली की सड़क पर अकेली खड़े होने का नाटक ही किया था कि बोली लगने लगी. स्कूटर वाला 20 हज़ार देने के लिए तैयार हो गया. रंगीन चमचमाती कार से उतरा अंग्रेज़ीदां कुछ भी देने के लिए तैयार था, बशर्ते एक रात के लिए वह मुझे हासिल कर पाता.
16 दिसंबर से ठीक पहले मुझे दफ्तर से असाइनमेंट मिला. राजधानी की सड़कों का जायज़ा लेना था. कहा गया कि ज़रा अकेली टहलकर इस शहर को टटोलना. नतीजा सामने है. अधेड़ उम्र के बुढ्ढे से लेकर अमीर बाप की बिगड़ी औलादें कुत्ते की दुम बनकर पूंछ हिलाने लगीं. मुझे लेकर सबकी नियत साफ थी.
डिफेंस कॉलोनी की उस सड़क पर कोई नहीं आया जिसने ईमानदारी से मुझसे तन्हा खड़े होने का सबब पूछा हो. किसी ने नहीं जानना चाहा कि सर्द और ठंडी हवाओं वाली इस रात में मैं कहीं भटक तो नहीं गई हूं. किसी ने मदद के लिए नहीं पुकारा. किसी ने ऐसा हाथ नहीं बढ़ाया जिसके हाथ में अपना हाथ दिया सका हो. ख़ैर.
मैंने इस काम को एक रूटिन असाइनमेंट माना था. देर रात सड़क किनारे लगे लैंप पोस्ट की पीली रोशनी में गज़ब की रूमानियत थी मगर…. आधे घंटे में एक से बढ़कर एक ख़रीददार देखे. यही महसूस किया कि रात चढ़ती तो बोली भी चढ़ती और ख़रीददार भी बढ़ते. मैं बेशक अपना काम पूरा करके वापस लौट आई मगर मेरे भीतर मेरा अपना शहर बजबजा रहा है, सड़ांध मार रहा है. डर और शर्मिंदगी तो है ही लेकिन मायूसी उससे बढ़कर है. दिल्ली मैंने तुम्हें ऐसे तो नहीं चाहा था.
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