मूवी रिव्यू: 'मैं और चार्ल्स'.......online updates by police prahari news


हम सबने चार्ल्स शोभराज का नाम सुना है, वो कुख्यात अपराधी जिसके नाम 70 और 80 के दशक में क़त्ल, धोखाधड़ी और जेल से भागने जैसे कई संगीन जुर्म थे. निर्देशक प्रवाल रमन की ‘मैं और चार्ल्स’ में उसी बिकिनी किलर चार्ल्स शोभराज की कहानी बड़े अनोखे और नए अंदाज़ में, पुलिस अफ़सर अमोद कांत के दृष्टिकोण से सुनाई गई है.

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लेकिन अगर आप ये सोचकर ‘मैं और चार्ल्स’  देखने जाएंगे कि ये ज़बरदस्त एक्शन वाली क्राइम थ्रिलर है तो आपको निराशा होगी. यहां चार्ल्स और पुलिस के बीच कोई शानदार चेज़ सीन्स, धमाकेदार डायलॉगबाज़ी या मारधाड़ नहीं है. धीमी रफ़्तार की इस फिल्म में सारा रोमांच दो मुख्य किरदारों- यानि चार्ल्स और पुलिस अफ़सर के किरदारों और उनके बीच की कश्मकश में छुपा है.

कहानी की शुरुआत 1968 से होती हैं जब कई लड़कियों का कत्ल करके 'बिकिनी किलर' 'चार्ल्स (रणदीप हुड्डा) थाईलैंड के क़ानून से भाग कर भारत आ जाता है. बड़ी मुश्किल से वो किसी तरह पुलिस की गिरफ़्त में आ जाता है लेकिन फिर सबको धोखा देकर तिहाड़ से भागता है. कौन है चार्ल्स के पीछे और ये पूरा जाल किसका बिछाया हुआ है? किस तरह ये लड़ाई उसके और पुलिस अफ़सर के बीच एक खेल बन जाती है? ‘मैं और चार्ल्स’ इस दिलचस्प कहानी को पर्दे पर उतारने की कोशिश करती है.

निर्देशक प्रवाल रमन की इस फिल्म की ख़ासियत है कि यहां हर घटना को ज़्यादा समझाने या सरल करने की कोशिश नही की गई है. शुरुआती आधे घंटे में किसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म के अंदाज़ में चार्ल्स की शख्सियत को समझाया जाता है और वो भी बेहद कम डायलॉग्स के साथ. यहां फिल्म की कहानी नॉन लीनियर तरीक़े से चलती है.

अलग अलग समय की घटनाएं एक के बाद एक सामने आती हैं और समझने के लिए काफ़ी सोचना पड़ता है. कई कहानियों के सिरे अधूरे छोड़ दिए जाते हैं. दर्शकों को लगता है कि शायद ये सिरे अंत में जुड़ेंगे लेकिन फिल्म दोबारा वहां नहीं जाती. चार्ल्स और अमोद कांत के बीच चूहा-बिल्ली का खेल बेहद सुस्त रफ़्तार में चलता है. ये मुक़ाबला दिलचस्प तो है लेकिन फिर भी ये चार्ल्स के किरदार की तरह पैना नहीं हैं.
चार्ल्स जिसे बयां करने के लिए फिल्म की शुरुआत में ही पुलिस हिप्नॉटिक कहती है, यानि एक ऐसा शख्स जो सबको सम्मोहित कर देता है. यही बात उसका किरदार निभाने वाले रणदीप हुडा के बारे में कही जा सकती है. उनकी शक्ल से लेकर हाव-भाव और बोलने का अदाज़ तक तक़रीबीन चार्ल्स शोभराज जैसा ही बन गया है. ये उनके अब तक के करियर का सबसे अच्छा रोल है. पहले भाग में रणदीप के हिस्से ज़्यादा डायलॉग नहीं हैं मगर इंटरवल के भाग में वो पूरी तरह जैसे ये किरदार ही बन जाते हैं. इसी हिस्से में फिल्म के कई मज़बूत सीन को अमोद कांत के किरदार निभा रहे आदिल हुसैन बख़ूबी संभाल लेते हैं. किसी मसाला बॉलीवुड फ़िल्म के पुलिस अफ़सर से अलग वो बेहद सहजता से इस रोल को जी गए हैं. वैसे तो रणदीप हुडा के साथ उनके सीन ज़्यादा बेहतर होने चाहिए थे, मगर यहां टिस्का चोपड़ा के साथ दो सीन बहुत मज़ेदार हैं. चार्ल्स के प्यार में गिरफ़्तार गर्लफ्रेंड के रोल में ऋचा चढ्ढा ने भी अपना रोल बखूबी निभाया है.
ख़ूबसूरती से फिल्माई गई ये फिल्म चार्ल्स के किरदार की तरह धीरे-धीरे आप पर असर करती है. अगर कोई मसाला थ्रिलर देखने के बजाए आपका इरादा एक दिलचस्प और नए अंदाज़ की फिल्म देखने का है तो ‘मैं और चार्ल्स’ ज़रूर देख आइए.
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