'विजय फैक्टर': बिहार में विकास पर हावी है जाति और वर्ग!.............online updates by police prahari news

पटना से निकले आरा बक्सर के लिए. रास्ता खराब से और खराब होता गया. हम जा रहे थे अगड़ा फैक्टर की परख के लिए. आरा में रेलवे स्टेशन के बाहर जो भी मिला बीजेपी का समर्थक मिला. बीजेपी लोकसभा चुनाव की तर्ज पर विधानसभा चुनावों में भी मोदी के ओबीसी कार्ड को जम कर भुनाने में भले ही लगी हो लेकिन उसकी नजर अगड़ा वोट बैंक पर है. इसमें ब्रहाम्ण , भूमिहार , राजपूत  और कायस्थ समाज के लोग आते हैं जिनकी कुल संख्या 12- 13 फीसद मानी जाती है. अगर इसमें वैश्य समाज को भी जोड़ दिया जाए तो संख्या 25 फीसद तक हो जाती है.

as per ABP :

वैसे आंकड़ों को देखा जाए तो अगड़ा वर्ग विधायकों की राजनीतिक ताकत पिछले दो दशकों में घटी है. 1990 में सवर्ण विधायकों की संख्या 105 थी. लेकिन उसी साल लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से संख्या में कमी आनी शुरु हो गयी. 1995 में सिर्फ 56 सवर्ण जाति के विधायक जीत सके. 2000 में भी यही आंकड़ा रहा. 2005 में लालू राज के खात्मे के साथ ही सवर्ण जाति के विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरु हुआ. तब 59 और 2010 में सवर्ण जाति के 79 विधायक विधानसभा पहुंचे.

वैसे सवर्ण जाति बीजेपी का ही साथ देती रही है. 2000 में बीजेपी को 31 फीसद , 2005 में 32 , 2010 में 27 फीसद ने बीजेपी का साथ दिया था और पिछले लोकसभा चुनावों में तो 63 प्रतिशत सवर्ण जाति बीजेपी के साथ खड़ी थी. इसी दौरान कांग्रेस को इस जाति का समर्थन 2000 में 22 फीसद से घटकर 2014 में  सिर्फ दस ही रह गयी. पिछले लोक सभा चुनावों में 69 फीसद भूमिहार , 54 प्रतिशत ब्राहम्ण और 63 फीसद राजपूतों ने बीजेपी का साथ दिया था. इसी तरह दिलचस्प है कि 2005 में जदयू ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उसे 33 फीसद अगड़ों ने वोट दिया , 2010 में भी दोनों साथ थे और 27 प्रतिशत वोट नीतीश कुमार को सवर्ण जातियों का मिला लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों से पहले दोनों अलग हुए तो सवर्ण जातियों के वोटों का खामियाजा नीतीश को उठाना पड़ा. तब उसे सिर्फ 8 प्रतिशत ही मत सवर्ण जातियों का मिला. 

इस बार आरा बक्सर का दौरा तो यही बताता है कि अगड़ी जातियां पूरी तरह से बीजेपी का साथ देती दिख रही हैं. आरा में लोगों का कहना है कि एक मौका बीजेपी को मिलना चाहिए. लोगों को नीतीश कुमार के विकास पर यकीन है लेकिन उनकी नजर में लालू के साथ जाना भारी पड़ेगा. जंगलराज की आवाज यहां साफ साफ सुनाई देती है. नई पीढ़ी से पूछा गया कि उन्होंने तो जंगलराज देखा ही नहीं तो फिर लालू से इतनी नफरत क्य़ों. जवाब मिलता है कि घर के बड़े बूढ़े यही बात करते हैं , जंगल राज के किस्से सुनाते हैं. कुछ का मानना है कि मोदी का सवा लाख करोड़ का पैकेज निश्चित रुप से भारी पड़ने वाला है.
कहीं कहीं लोगों की बातों से अहसास होता है कि बिहार की जनता को विकास की लत लग गयी है. सबको लगता है कि नीतीश ने खूब विकास किया लेकिन अब अगर जनता मोदी को वोट देती है तो विकास की गति और ज्यादा तेज हो जाएगी. लेकिन अगड़ी जातियां वोट के बदले विकास के साथ साथ अपना मुख्यमंत्री भी चाहने लगी है. कुछ को लगता है कि अब समय आ गया है कि मुख्यमंत्री भी उन्ही में से बनाया जाना चाहिए. बीजेपी इस मुददे से बचना चाहती है. उसे पता है कि 12-13 सवर्ण जातियों के वोट से चुनाव नहीं जीता जा सकता. उसे अपने धड़ों पासवान , कुश्वाहा और जीतन राम मांझी का वोट बैंक भी चाहिए. इसके आलावा भी महापिछड़ा वोट बैंक पर उसकी नजर है जिसकी संख्या 26 से 28 फीसद तक बताई जाती है. 

आरा से छपरा पहुंचने पर कहानी पूरी तरह बदल जाती है. वहां यादव वोटर पूरी तरह से लालू के पीछे खड़ा दिखाई देता है. उन्हे लगता है कि जंगल राज जितनी बार बोला जाएगा , उतना ही यादव वोट का ध्रुवीकरण होगा. मधेपुरा में भी यही स्वर सुनाई देता है. वहां कोसी की 13 सीटों पर पप्पू यादव ने ताल ठोंक रखी है लेकिन अधिकांश यादव वोटर लालू को ही तरजीह दे रहा है. पप्पू के समर्थकों को भी लगता है कि बीजेपी को पप्पू के साथ हाथ मिलाना चाहिए था इसका फायदा उसे मिलता. बहुतों को लगता है कि यादव बेल्ट में नीतीश के उम्मीदवारों के सामने यादव उम्मीदवार उतारने की बीजेपी की रणनीति ज्यादा कामयाब नहीं हो सकेगी. हालांकि लालू का यादव वोटर इतनी आसानी से नीतीश को वोट दे आएगा...इस पर लालू समर्थक भी शक करते हैं.

मधेपुरा से लेकर पूर्णिया की बीच जहां भी लोगों से बात हुई वहां पलड़ा बराबर का नजर आया. कहीं लालू , कहीं मोदी और बीच बीच में कहीं पप्पू भी. लेकिन पूर्णिया , किशनगंज , अररिया और कटिहार के मुस्लिम वोटर आपको किसी भ्रम में नहीं रखते. सबको यही लगता है कि नीतीश ने ही बिहार का विकास किया है और महागठबंधन ही धर्मनिरपेक्ष है लिहाजा वोट उसके हिस्से ही जाएगा. एमआईएम के ओवैसी को आम मुस्लिम मतदाता गंभीरता से नहीं लेता है. टीवी फ्रिज की एजेंसी चलाने वाले इसरार पुर्णियां में कहते हैं कि ओवैसी पहले अपने इलाके में जाकर वहां का विकास करें और वहां अपने दल का विस्तार करें उसके बाद ही सीमाचंल आने की कोशिश करें. यहां कुछ को शंका है कि ओवैसी के भड़काउ भाषणों से गैर मुस्लिम वोटों का बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ तो महागठबंधन को नुकसान उठाना पड़ सकता है.

कुल मिलाकर लोग विकास की बात जरुर करते हैं लेकिन जाति और वर्ग हावी हैं. ऐसे में दोनों धड़ों की नजर अतिपछड़ा या महापिछड़ा वोटों की तरफ हैं. इनकी संख्या 28 फीसद तक बताई जाती है. निषाद , नौनिया , बिंद , मल्लाह , बेलदार , पानवाड़ी , चंद्रवंशी आदि इसमें आते हैं. कहा जा रहा है कि जो इस वोट बैंक को साध लेगा वह चुनाव निकाल ले जाएगा. इस वर्ग को अगर यादव का डर सताता है तो भूमिहार का डर भी सताता है. नीतीश कुमार ने हाल ही में इस वर्ग की कुछ जातियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की सिफाऱिश केन्द्र को भेज कर इनका दिल और वोट जीतने की कोशिश की है लेकिन बीजेपी ने भी संघ परिवार के सहारे इस वोट बैंक में सेंधमारी की है. ऐसे में बिहार चुनाव दिलचस्प हो गया है.
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