ट्रैक की चैंपियन मजदूरी करने पर मजबूर...

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न्यूज़:  हमारे देश में क्रिकेट जैसे खेल में टैलेंट हंट का सिलसिला तो खूब है. लेकिन दूसरे खेलों में अपना लोहा मनवाने वाली प्रतिभाएं गुमनामी और बदहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं. राजस्थान के सिरोही जिले की एथलीट भगवती देवी की कहानी भी यही है. राजस्थान से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखा चुकी भगवती मनरेगा में मजदूरी गुजर-बसर कर रही हैं.
इनकी कामयाबियों की लंबी फेहरिस्त सुन कर कोई भी कह उठेगा कि भविष्य उज्जवल है. लेकिन राजस्थान के सिरोही जिले की एथलीट भगवती देवी की जिंदगी अपनी असल मंजिल से दूर बदहाली और गुमनामी के ट्रैक पर गुजर रही है.
सिरोही जिले के अपने गांव नागाणी में छोटे मोटे काम के साथ-साथ हाथों में फावड़ा थाम कर भगवती मनरेगा में मजदूरी करती है. तब किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता है.
ट्रैक की चैंपियन मजदूरी करने पर मजबूर
साल 2002 में नागाणी गांव की भगवती ने दौड़ प्रतियोगिताओं में फर्राटा भरना शुरू किया था. गांववालों ने उसमें पीटी उषा की छवि देखने शुरू कर दी थी.
साल 2002 में जिला स्तरीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप से मिली जीत के बाद भगवती ने अगले चार पांच सालों में राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में कई गोल्ड मेडल बटोरे.
साल 2006 में जयपुर में हुए राजस्तरीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 2 मिनट 32 सेकेंड में 800 मीटर दौड़ कर वो चैंपियन बनी थी.
भगवती की कामयाबी ने उसके गांव नागाणी के लोगों की उम्मीदें भी बढ़ा दी थीं. तब कौन जानता था कि ट्रैक पर में फर्राटा भरकर मेडल बटोरने वाली भगवती को इस तरह मनरेगा में काम कर दो जून की रोटी जुटानी पड़ेगी.
पिता की मौत के साथ ही भगवती के लिए परेशानियों का दौर शुरू हो गया. पहले पढ़ाई छूटी, फिर ट्रैक छूटा और फिर पति ने भी छोड़ दिया.
भाई के घर लौटी तो सिर छिपाने के लिए छत तो मिल गई. लेकिन दाना-पानी की दिक्कत खत्म नहीं हुई. भगवती के टैलेंट की कद्र न राजस्थान सरकार ने की. न एथलेटिक्स से जुड़ी संस्थाओं ने. मजबूरी में भगवती को मजदूरी का रास्ता पक़ड़ना पड़ा.
जिंदगी की मुश्किलों से जूझ रही भगवती के सपने अब भी टूटे नहीं हैं. एबीपी न्यूज भगवती से मिला तो वो सर्टिफिकेट का वो भरा-पूरा पुलिंदा दिखाती रहीं. भगवती का सूरते हाल जीता जागता नमूना है कि क्रिकेट को छोड़कर दूसरे खेलों में प्रतिभाओं को न तो कोई गॉड फादर मिलता है. ना ही जरूरी मदद.
भगवती की आंखों में भी सवाल यही है कि क्या सरकार या खेलों से जुड़ी संस्थाएं उसकी सुध लेगी.



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