सिरकटी लाश फेंकने वाले कातिल की खौफनाक दास्तान...

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न्यूज़: कई सालों तक वो लोगों के सिर काटता रहा. और फिर सिरकटी लाश सीधे ले जाकर तिहाड़ जेल के बाहर फेंक आता था. इस चुनौती के साथ कि पकड़ सको तो पकड़ लो. फिर एक रोज़ वो पकड़ा गया. लेकिन हैंरतअंगेज तौर पर छूट भी गया. उसके छूटते ही तिहाड़ जेल के बाहर सिर कटी लाश मिलने का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया था.
1998 में मिली थी पहली लाश
बात 1998 की है जब पहली बार तिहाड़ जेल के पास एक लाश मिली थी. उसके बाद जेल के आसपास अचानक सिर कटी लाशें मिलने का सिलसिला शुरू हो गया था. पुलिस भी इस बात से परेशान थी. कोई था जो हर कत्ल के बाद बगैर सिर के लाश को जाकर तिहाड़ जेल के पास फेंक आता था. मामला कत्ल का था तो पुलिस चौकन्ना हो गई थी. दिल्ली पुलिस अब कातिल की तलाश में जुट गई थी.
इस तरह मिली थी लाशें
खून से सनी कत्ल की यह सिलसिलेवार दास्तान दिल्ली के आदर्श नगर इलाके से शुरु हुई थी. जहां 1998 में पहली सिर कटी लाश मिली थी. दूसरी सिर कटी लाश 27 जून 2003 को अलीपुर में, तीसरी सिर कटी लाश 20 नवंबर 2003 को तिहाड़ जेल के गेट नंबर 1 के सामने, चौथी सिर कटी लाश 2 नवंबर 2005 को मंगोलपुरी में, पांचवीं सिरकटी लाश 20 अक्टूबर 2006 को तिहाड़ जेल के गेट नंबर-3 के सामने, छठी सिरकटी लाश 25 अप्रैल 2007 को तिहाड़ जेल के गेट नंबर-3 के सामने और सातवीं सिरकटी लाश 18 मई 2007 को फिर से तिहाड़ के गेट नंबर-3 के सामने बरामद हुई थी. पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी.
कातिल सामने था, मगर सबूत नहीं
पुलिस के सामने एक के बाद एक चुनौती रखने वाले शातिर खूनी का नाम था चंद्रकांत झा. कमाल ये था कि पहले ही कत्ल के बाद पुलिस ने चंद्रकांत झा को गिरफ्तार भी कर लिया था. लेकिन सबूतों के अभाव में वो बरी हो गया. और उसके बाद कत्ल का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. तिहाड़ जेल के बाहर लाशों के मिलने का सिलसिला थम नहीं रहा था. दिल्ली पुलिस के सामने क़ातिल का चेहरा तो था लेकिन उसके पास सबूत नहीं थे जो ये साबित कर पाते कि चंद्रकांत ही इन सिरकटी लाशों का गुनहगार है.
कातिल की पहली गलती
खून करने के बाद कातिल ने पांचवीं सिरकटी लाश 20 अक्टूबर 2006 को तिहाड़ जेल के गेट नंबर 3 के सामने फेंकी थी. इसी दिन क़ातिल ने पहली गलती की थी. दरअसल इस लाश के साथ उसने पहली बार एक चिट्ठी भी छोड़ी थी. जिसमें सीधे पुलिस को चुनौती दी गई थी कि पकड़ सको तो पकड़ के दिखाओ.
चिठ्ठी में यूं दिया था चैलेंज
''मेरे प्रियजनों दिल्ली पुलिस के जांबाज़ डीएचजी यानि दिल्ली होमगार्ड से आईपीएस अधिकारी तक तुम सभी को तुम्हारे दामाद की तरफ से खुल्लम-खुल्ला चैलेंज है कि अगर वाकई तुम लोगों ने मां का दूध पिया है तो मुझे पकड़कर दिखाओ वरना तुम सारे ऊपरे से लेकर नीचे तक के दिल्ली पुलिस स्टाफ के लोग नाजायज़ औलादें कहलाओगे.'' खत का मज़मून ही ऐसा था कि सीरियल किलर की इस चिट्ठी से पूरे महकमे में हड़कंप मच गया. आखिरकार पुलिस ने अपने तमाम घोड़े दौड़ाए औऱ फिर चंद्रकांत झा को गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन जल्द ही चंद्रकांत झा एक बार फिर सबूतों की कमी के चलते ज़मानत पर रिहा हो गया था.
सबूतों के अभाव में बरी होता रहा कातिल
पुलिस ने पहले कत्ल के बाद ही चंद्रकांत को गिरफ्तार लिया थी. पुलिस को यकीन भी था कि हत्यारा यही है. इस यकीन को सबूत का जामा पहनाना बाकी था. लिहाज़ा पुलिस ने चंद्रकांत को गुनहगार साबित करने के लिए उसके खिलाफ सबूत इक्कठे करने शुरु किए. शेखर मर्डर केस में पुलिस ने कोर्ट में चंद्रकांत को कातिल ठहराने के लिये कई सुबूत और गवाह पेश किए. लेकिन उसकी तमाम दलीलें नाकाम साबित हुईं. कोर्ट ने सुबूतों के अभाव में झा को बरी कर दिया. उमेश मर्डर केस में भी चंद्रकांत के खिलाफ पुलिस के पास कोई सुबूत नहीं था. लिहाज़ा इस मामले में भी चंद्रकांत को कोर्ट ने बरी कर दिया था. ऐसे ही मंगोलपुरी मर्डर केस में सुबूत के अभाव में मजबूरन अदालत ने चंद्रकांत बरी कर दिया था.
कातिल के खिलाफ पहला सबूत
तिहाड़ के गेट नंबर 3 के पास मिली सातवीं और आखिरी लाश की पहचान दिलीप मंडल के रूप में हुई. इस केस में चंद्रकांत की गिरफ्तारी के बाद उसकी निशानदेही पर लाश का सिर भी यमुना के किनारे से बरामद कर लिया गया था. यानी सात में से तीन कत्ल में बरी होने के बाद अब पहली बार कोई पुख्ता सबूत चंद्रकांत के खिलाफ पुलिस के हाथ लगा था. लेकिन अभी भी तफ्तीश और सबूत अधूरे थे.
पुलिस ने बरती थी लापरवाही
ना कोई गवाह. ना पुख्ता सबूत. और ना ही कोई चश्मदीद. ऐसे में सवाल यही था कि क्या दिल्ली पुलिस कोर्ट में चंद्रकांत झा को दिल्ली का सीरियल किलर कैसे साबित करेगी. ऐसा नहीं था कि पुलिस को चंद्रकांत को घेरने के मौके या सबूत नहीं मिले. पर वक्त रहते पुलिस उनका सही ढंग से इस्तेमाल नहीं कर सकी. मसलन चंद्रकांत झा को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने उसका इकबालिया बयान तो लिया लेकिन मैजिस्ट्रेट के सामने उसका बयान नहीं कराया. जबकि कोर्ट में इक़बालिया बयान की कोई अहमियत नहीं होती. मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए 164 के बयान को ही अदालत कानूनी मान्यता देती है. एक सिरकटी लाश के साथ मिले खत को पुलिस ने बिना सील किये ही चंद्रकांत की लिखावट के साथ मिलान के लिये लैब भेज दिया था. यह पुलिस की सबसे बड़ी लापरवाही थी. क्योंकि ये खत इस केस में शायद सबसे अहम सबूत साबित होता. और आगे चल कर हुआ भी.
ऐसे साबित हुआ था जुर्म
जी हां, चंद्राकांत के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत आखिर में वो ख़त ही बना, जो उसने दिल्ली पुलिस को लिखा था. खत की लिखावट और चंद्रकांत की लिखावट एक थी. फॉरेंसिक रिपोर्ट ने भी इसकी तसदीक़ कर दी थी. इसी लिखावट के आधार पर आखिरकार अदालत ने चंद्रकांत को दोषी माना. लिखावट के अलावा इसी खत से दूसरा सबसे अहम सुराग भी पुलिस को मिला. दरअसल खत में चंद्रकांत ने ये भी लिखा था कि वो 2003 में जेल से निकल चुका है. रिकार्ड से पता चला कि वो सचमुच 2003 में तिहाड़ से जमानत पर रिहा हुआ था. तिहाड़ के सामने अमित नामक युवक की लाश फेंकने के बाद खुद चंद्रकांत ने हरिनगर थाने में पुलिस को फोन किया था. और चुनौती दी थी कि उसे पकड़ सको तो पकड़ लो. जिस पीसीओ से चंद्रकांत ने पुलिस को फोन किया था, उस पीसीओ के मालिक ने अदालत में चंद्रकांत को पहचान लिया था. इसके अलावा पुलिस को चंद्रकांत के हैदरपुर स्थित मकान नंबर 229 में खून से सना एक चाकू भी बरामद हुआ था. खून का मिलान उसके हाथों मारे गए दिलीप नामक एक व्यक्ति की लाश से हुआ था.
इसलिए चंद्रकांत ने किए थे कत्ल
पुलिस ने चंद्रकांत झा को गिरफ्तार तो कर लिया था. पूछताछ के दौरान जब कत्ल करने की हकीकत पुलिस के सामने आई तो पुलिस वाले भी हैरान रह गए. कातिल ने पुलिस कत्ल करने की वजब बताते हुए पुलिस से कहा कि 'उसे उसके कर्मों की सजा मिल गई है.' पुलिस ने अपनी चार्जशीट में इस खौफनाक सीरियल किलिंग की जो वजह बताई वह वाकई में चौंकाने वाली है. वजह यह थी कि चंद्रकांत झा काफी गुस्सैल किस्म का शख्स था. उसे अचानक किसी दोस्त या साथी की जरा सी बात भी नागवार गुजरती तो वो उसका कत्ल कर बैठता था और लाश की शिनाख्त को मिटाने के लिए उसका सिर धड़ से जुदा कर देता था. मसलन किसी के चालचलन पर शक होने पर, या एक दोस्त के मछली खाकर बर्तन बाहर ना रखने पर, बिना उसके बताए उसका रिक्शा लेने और उसमे पंक्चर करके वापस देने पर या फिर उसका मोबाइल चोरी करने पर उसने लोगों का कत्ल कर दिया था.
एक साथ मिली थी दो सजाएं
दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तारी के बाद 24 अगस्त 2007 को निचली अदालत में उसके खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी. पहली चार्जशीट में उस पर छह लोगों के कत्ल का इलजाम था. 26 अगस्त 2007 को पुलिस ने उसके खिलाफ दूसरी चार्जशीट दाखिल की. जिसमें उस पर सातवें कत्ल का इलजाम लगा. लेकिन पांच दिसंबर 2007 को अदालत ने सबूतों के अभाव में चंद्रकांत झा को कत्ल के एक केस में बरी कर दिया. वो जमानत पर बाहर आ गया था. लेकिन फिर 21 मार्च 2008 को अदालत ने पहली नजर में उसे सिलसिलेवार कत्ल का दोषी माना और उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी. 2013 में उसे एक साथ फांसी और उम्र कैद की सजा सुनाई गई. लेकिन फिर तीन साल बाद 27 जनवरी 2015 को दिल्ली हाई कोर्ट ने चंद्रकांत झा की मौत की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था.


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