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यही दशा इस समय यूपी के मनरेगा मजदूरों की है।प्रधानी चुनाव हुये करीब एक साल होने जा रहा लेकिन गाँवो में अभी कोई कार्य शुरू नहीं हो सका है ।जहाँ थोड़ा बहुत काम हुआ भी है वहाँ पर मजदूरों को पैसा नहीं मिल पा रहा है।मजदूर अपनी पुश्तैनी मजदूरी कमाने व परदेश जाने की जगह गाँव में ही घर बैठे परदेश वाली मजदूरी मिलने की उम्मीद से मनरेगा मजदूर बन गये थे।गाँव में मजदूरी करने फसल आदि काटने जाना तक कम कर दिया था।मनरेगा में मेहनत कम पैसा अधिक मिलता है।मनरेगा केन्द्र सरकार के धन से प्रदेश सरकार चलाती है और इस योजना के तहत कार्य करने व करवाने की एक गाइड लाइन भी है।पिछले वर्षों प्रदेश में मनरेगा के धन का काफी दुरुपयोग हुआ और स्थिति सीबीआई जांच तक पहुँच गयी।अब तक सीबीआई कई भ्रष्टाचार के कई मुकदमे भी दर्ज करा चुकी है।परिणाम यह हुआ कि केन्द्र पैसा देने में हिचकने लगा जिसके फलस्वरूप मजदूरों की मजदूरी बकाया हो गयी और आजतक उनके खातों तक नहीं पहुँच सकी।इधर अधिकारी कहने लगे हैं कि पैसा आ गया है और आवंटित किया जा रहा है।मजदूर के काम माँगने पर एक पखवाड़े के अन्दर कार्य देने की अवधारणा समाप्त सी हो गयी है।केन्द्र के चौदहवे वित्त पर हिसाब किताब न दे पाने के कारण बैंक खातों को रोक लगा दी गयी जिसकी वजह से गाँवों में हैडपम्पो की मरम्मत जैसे महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो पा रहे।
प्रदेश सरकार के अधिकारियों के कर्मों का फल मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है और सालों से मजदूरी न मिलने से उनको जीवन यापन करने में दिक्कत आ रही है। सरकार की योजनाओं का संचालन करने वाले कुछ अधिकारियों के लिये सरकारी योजनाएँ वरदान साबित हो रही हैं और योजनाओं से जनता भले ही मालामाल न हो रही है लेकिन वह जरूर मालामाल हो रहे हैं।मनरेगा की सीबीआई जांच इसका जीता जागता उदाहरण है।
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साथियों,
राजनीति विचारों व विचारधारा की होती है इसमें कभी कोई जाती दुश्मनी नहीं होती है।राजनीति अपनी जगह होती है और व्यक्तिगत सम्बंध और मानवीय संवेदनाए अलग होते हैं।देहात में एक मसल कहते हैं कि-" लड़े दुइ साड़ कचरि गयी बूढ़ा "।कभी कभी दो बड़ो की लड़ाई में कमजोर पिस जाता है और परिणाम उसकी सोच या उम्मीद के विपरीत आ जाता है।कहावत कि -" चौबे गये थे छब्बे बनने लेकिन लौटे दूबे बनकर "।
राजनीति विचारों व विचारधारा की होती है इसमें कभी कोई जाती दुश्मनी नहीं होती है।राजनीति अपनी जगह होती है और व्यक्तिगत सम्बंध और मानवीय संवेदनाए अलग होते हैं।देहात में एक मसल कहते हैं कि-" लड़े दुइ साड़ कचरि गयी बूढ़ा "।कभी कभी दो बड़ो की लड़ाई में कमजोर पिस जाता है और परिणाम उसकी सोच या उम्मीद के विपरीत आ जाता है।कहावत कि -" चौबे गये थे छब्बे बनने लेकिन लौटे दूबे बनकर "।
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यही दशा इस समय यूपी के मनरेगा मजदूरों की है।प्रधानी चुनाव हुये करीब एक साल होने जा रहा लेकिन गाँवो में अभी कोई कार्य शुरू नहीं हो सका है ।जहाँ थोड़ा बहुत काम हुआ भी है वहाँ पर मजदूरों को पैसा नहीं मिल पा रहा है।मजदूर अपनी पुश्तैनी मजदूरी कमाने व परदेश जाने की जगह गाँव में ही घर बैठे परदेश वाली मजदूरी मिलने की उम्मीद से मनरेगा मजदूर बन गये थे।गाँव में मजदूरी करने फसल आदि काटने जाना तक कम कर दिया था।मनरेगा में मेहनत कम पैसा अधिक मिलता है।मनरेगा केन्द्र सरकार के धन से प्रदेश सरकार चलाती है और इस योजना के तहत कार्य करने व करवाने की एक गाइड लाइन भी है।पिछले वर्षों प्रदेश में मनरेगा के धन का काफी दुरुपयोग हुआ और स्थिति सीबीआई जांच तक पहुँच गयी।अब तक सीबीआई कई भ्रष्टाचार के कई मुकदमे भी दर्ज करा चुकी है।परिणाम यह हुआ कि केन्द्र पैसा देने में हिचकने लगा जिसके फलस्वरूप मजदूरों की मजदूरी बकाया हो गयी और आजतक उनके खातों तक नहीं पहुँच सकी।इधर अधिकारी कहने लगे हैं कि पैसा आ गया है और आवंटित किया जा रहा है।मजदूर के काम माँगने पर एक पखवाड़े के अन्दर कार्य देने की अवधारणा समाप्त सी हो गयी है।केन्द्र के चौदहवे वित्त पर हिसाब किताब न दे पाने के कारण बैंक खातों को रोक लगा दी गयी जिसकी वजह से गाँवों में हैडपम्पो की मरम्मत जैसे महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो पा रहे।
प्रदेश सरकार के अधिकारियों के कर्मों का फल मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है और सालों से मजदूरी न मिलने से उनको जीवन यापन करने में दिक्कत आ रही है। सरकार की योजनाओं का संचालन करने वाले कुछ अधिकारियों के लिये सरकारी योजनाएँ वरदान साबित हो रही हैं और योजनाओं से जनता भले ही मालामाल न हो रही है लेकिन वह जरूर मालामाल हो रहे हैं।मनरेगा की सीबीआई जांच इसका जीता जागता उदाहरण है।
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