एक पैगाम माँ के नाम..

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पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए ।

शख्सियत, ए ‘लख्ते-जिगर’, कहला न सका ।
जन्नत.. के धनी पैर.. कभी सहला न सका ।

दुध, पिलाया उसने छाती से निचोड़कर,
मैं ‘निकम्मा’, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका ।

बुढापे का सहारा.. हूँ ‘अहसास’ दिला न सका
पेट पर सुलाने वाली को ‘मखमल, पर सुला न सका ।

वो ‘भूखी’, सो गई ‘बहू’, के ‘डर’, से एकबार मांगकर,
मैं सुकुन.. के ‘दो, निवाले उसे खिला न सका ।

नजरें उन बुढी, आंखों.. से कभी मिला न सका ।
वो दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका ।

जो हर रोज ममता, के रंग पहनाती रही मुझे,
उसे दीवाली पर दो जोड़, कपडे सिला न सका ।

बिमार बिस्तर से उसे शिफा, दिला न सका ।
खर्च के डर से उसे बडे़ अस्पताल, ले जा न सका ।

माँ के बेटा कहकर दम, तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
दवाई, इतनी भी महंगी.. न थी के मैं ला ना सका ।
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